दो भाइयों का बीच का संबंध
ये जो तस्वीर है वो दो भाइयों के बीच "बंटवारे" के बाद की बनी हुई तस्वीर है।
बाप-दादा के घर की देहलीज को जिस तरह बांटा गया है यह हर गांव घर की असलियत को भी
दर्शाता है। दरअसल हम "गांव" के लोग जितने खुशहाल दिखते हैं उतने हैं नहीं। जमीनों
के केस, पानी के केस, खेत-मेढ के केस, रास्ते के केस, मुआवजे के केस,बंजर तालाब के
झगड़े, ब्याह शादी के झगड़े , दीवार के केस,आपसी मनमुटाव, चुनावी रंजिशों ने समाज को
खोखला कर दिया है। अब "गांव" वो नहीं रहे कि "बस" या अन्य 'वाहनो' में गांव की लडकी
को देखते ही सीट खाली कर देते थे बच्चे। दो चार "थप्पड" गलती पर किसी बड़े बुजुर्ग
या ताऊ ने ठोंक दिए तो इश्यू नहीं बनता था तब। लेकिन अब..आप सब जानते ही है अब हम
पूरी तरह बंटे हुए लोग हैं। "गांव" में अब एक दूसरे के उपलब्धियों का सम्मान करने
वाले, प्यार से सिर पर हाथ रखने वाले लोग संभवतः अब मिलने मुश्किल हैं।वह लगभग गायब
से हो गये हैं ... हालात इस कदर "खराब" है कि अगर पडोसी फलां व्यक्ति को वोट देगा
तो हम नहीं देंगे। इतनी नफरत कहां से आई है लोगों में ये सोचने और चिंतन का विषय
है। गांवों में कितने "मर्डर" होते हैं, कितने "झगड़े" होते हैं और कितने केस
अदालतों व संवैधानिक संस्थाओं में लंबित है इसकी कल्पना भी भयावह है। संयुक्त
परिवार अब "गांवों" में शायद एक आध ही हैं, "लस्सी-दूध" की जगह यहां भी अब ड्यू,
कोकाकोला, पेप्सी पिलाई जाने लगी है। बंटवारा केवल भारत का नहीं हुआ था, आजादी के
बाद हमारा समाज भी बंटा है और शायद अब हम भरपाई की सीमाओं से भी अब बहुत दूर आ गए
हैं। अब तो वक्त ही तय करेगा कि हम और कितना बंटेंगे।.. यूँ लगने लगा है जैसे हर
आदमी के मन मे ईर्ष्या भरा हुआ है कन फुसफुसाहट ..जहां लोग झप्पर छान उठाने को हंसी
हंसी में सैकड़ो जुट जाया करते थे वहां अब इकठ्ठे होने का नाम तक नही लेते.. एक दिन
यूं ही बातचीत में एक मित्र ने कहा कि जितना हम "पढे" हैं दरअसल हम उतने ही बेईमान
व संकीर्ण बने हैं। "गहराई" से सोचें तो ये बात सही लगती है कि "पढे लिखे" लोग हर
चीज को मुनाफे से तोलते हैं और यही बात "समाज" को तोड रही है। 🙏🙏🙏
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