भीमा कोरेगांव

आज हमारे बीच में शूद्रों का इतिहास चाहे जिस रूप में भी मौजूद हो लेकिन 1 जनवरी 1818 को भीमा नदी के किनारे कोरेगाव, उतरी पूर्वी पुणे में अंग्रेजो और पेशवा के बिच लड़ी गई लड़ाई वीरता और कौशल का उदाहरण है। अंग्रेजो की तरफ 500 अछूत लड़ाके और पेशवा बाजीराव के 28000 सैनिक जिनमे 20000 घुड़सवार थे। मात्र 500 अछूतो ने पेशवा की शक्तिशाली फौज को हरा दिया। सैनिको को उनकी वीरता और सहस की लिए सम्मानित किया गया और उनके सम्मान में आज भी भीमा कोरेगांव में उनका स्मृति स्तूप खड़ा है। हालाँकि इस युद्ध से पूर्व महार सेना के सेनापति रत्ननाक, जाननाक ने पेशवा से मिलकर युद्ध की स्थिति के बारे में विस्तार से बताया था और उसने कहा हमे इस युद्ध को लड़ने में कोई दिलचस्पी नही है यदि पेशवा राज हमे स्वेच्छा से हमारी जमीन और हक लौटा दे। यहाँ बता दूँ कि अछूतों व् शूद्रों के लिए पेशवा काल सबसे कुकृत्य काल रहा है। पेशवा के जमाने में शूद्रों को कमर में झाड़ू बांधकर चलना पड़ता था जिससे पैरों के निशान जमीन से मिट जाए और थूकने के लिए गले में मिट्टी की हांड़ी बंधी होती थी अन्यथा थूक से धरती अपवित्र हो जाती मानते थे। इतना ही नही अछूतों को घर से बाहर दोपहर के समय ही निकलना पड़ता था जब सड़के सुनसान होती थी और मुहँ से आवाज निकालकर चलता होता था ताकि कोई ब्राह्मण उनके स्पर्श में न आ सके। जब रत्ननाक व् उसकी सेना ने पेशवा से मिलकर अपनी व्यथा सुनाई तो बदले में पेशवा बाजीराव ने कहा तुम अछूतों को सुई की नोक के बराबर थरथराती धुल के कण के बराबर जमीन भी नही दूंगा, तुम जो चाहो करो। अहंकार के इस युद्ध को इतिहास की किताबों में ज्यादा जगह तो नही मिली लेकिन ब्रिटिश रेजिडेंट की अधिकारिक रिपोर्ट के अनुसार इसे नायकत्व वाला कर्त्य कहा गया और सैनिको के अनुशासित और समर्पित साहस और स्थिरता की तारीफ की गई। अछूतों के लिए यह युद्ध बहुत ही महत्त्व का था। प्रथम अंग्रेजो की छोटी सी टुकड़ी ने पेशवा को हरा दिया जिसने पेशवा साम्राज्य अहंकार का सफाया करने में मदद की। दूसरा अछूत महारो को अपनी वीरता दिखा जाती बंधन को तोड़ने का मौका मिला। आज जो लोग इस आत्मसम्मान भरे इतिहास को नहीं समझ पा रहे वे इसे शौर्य दिवस पर प्रश्नचिन्ह ही नहीं लगते बल्कि इस पर आलोचना भी करते हैं और गर्व करने को देशहित नहीं मानते हैं। यह भर्त्सना करने वाले लोग असल में जातिय अहंकारी लोग हैं जो न तो उस व्यवस्था पर शर्मिंदा हैं जिनकी वजह से हर दौर में मानवता भी शर्मसार होती रहेगी और न इस सच को स्वीकार कर सकते हैं कि हमें भी हरा सकता है। जहां तक बात है देशहित की तो चमार रेजीमेंट के इतिहास को भी जो पढ़ और समझ ले वे एक एक बात को समझ सकेंगे। महार, चमार रेजिमेंट1943 को अंग्रेजों ने बनाया था। जापान और सिंगापूर में चमार रेजिमेंट ने सबसे खूंखार लड़ाई लड़ी। कहा जाता है कि अबतक कि सबसे खतरनाक लड़ाइयों में से चमार रेजिमेंट की यह लड़ाइयां थी। बाद में आजाद हिंद फौज जो कि सुभाष चंद्र बोस द्वारा गठित थी अंग्रेज चाहते थे कि इस फ़ौज से चमार रेजिमेंट लड़ाई करे लेकिन चमार रेजिमेंट के मना करने पर अंग्रेजों ने इस रेजिमेंट को बर्खास्त कर दिया लेकिन काबिलियत के रोना रोने वाले लोगों को इतिहास का असली पहलू कभी सामने नही रखा गया है। डॉ भीमराव अंबेडकर ठीक ही कहते थे कि यदि इस देश की शिक्षा, सुरक्षा और सम्पत्ति का अधिकार केवल जाति विशेष के पास न होकर सभी में समान स्वरूप होता तो देश कभी भी गुलाम नही होता। यह फोटो Leena द्वारा निर्मित। बाकि इस इतिहास से सम्बंधित वीडियो और ऐतिहासिक स्रोत हेतु इस लिंक पर जाएं https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=1773075226038785&id=680229688656683

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