गुलामगीरी

 गुलामगिरी। भाग 3। परिच्छेद : नौ


[वेदमंत्र, जादू का प्रभाव, अनछर पढ़ कर मारना, भक्ति का दिखावा करना, जप, चार वेद, ब्रह्मजाल, नारदशाही, नया ग्रंथ, शूद्रों को पढ़ने-पढ़ाने पर पाबंदी, भागवत और मनुसंहिता में असमानता आदि के संबंध में।]


धोंडीराव : सचमुच में आपने उनके मूल पर ही प्रहार किया है। आपके कहने के अनुसार परशुराम मर गया और क्षेत्रपतियों के मन पर ब्राह्मणों के मंत्रों का प्रभाव कैसे पड़ा, कृपया आप इस बात को हमें जरा समझाइए।


जोतीराव : क्योंकि उस समय ब्राह्मण लोग युद्ध में हर एक शस्त्र पर मंत्रविधि करके उन शस्त्रों में प्रहार की क्षमता लाए बगैर उनका प्रयोग शत्रु पर करते नहीं थे। उन्होंने इस तरह से जब कई दाव-पेंच लड़ा कर बाणासुर की प्रजा और उसके राजकुल को धुल में मिला दिया, उस समय बड़ी आसानी से शेष सभी भोले-भाले क्षेत्रपतियों के दिलो-दिमाग पर ब्राह्मणों की विद्या का डर फैल गया था। इसका प्रमाण इस तरह से दिया जा सकता है कि 'भृगु नाम के ऋषि ने जब विष्णु की छाती पर लात मारी, तब विष्णु ने (उनके मतानुसार आदिनारायण) ऋषि के पाँव को तकलीफ हो गई होगी, यह समझ कर उसने ऋषि के पाँव की मालिश करना शुरु किया। अब इसका सीधा-सा अर्थ स्वार्थ से जुड़ा हुआ है। वह यह है कि, जब साक्षात आदिनारायण ही, जो स्वयं विष्णु है, ब्राह्मण की लात को बर्दाश्त करके उसके पाँव की मालिश की अर्थात सेवा की, तब हम जो शूद्र लोग हैं, (उनके कहने के अनुसार शूद्र प्राणी) यदि ब्राह्मण अपने हाथों से या लातों से मार-पीट कर हमारी जान भी ले ले, तब भी हमें विरोध नहीं करना चाहिए।


धोंडीराव : फिर आज जिन नीची जाति के लोगों के पास जो कुछ जादूमंत्र विद्या है, उसको उन्होंने कहाँ से सीख लिया होगा?


जोतीराव : आजकल के लोगों के पास जो कुछ अनछर पढ़ने की, मोहिनी देने की बंगाली जादूमंत्र विद्या है, उसको उन्होंने केवल वेदों के जादूमंत्र विद्या से नहीं लिया होगा, ऐसा कोई भी नहीं कह सकता है: क्योंकि अब जब उसमें बहुत हेर-फेर हुई है, बहुत शब्दों के उच्चारणों का अपभ्रंश हुआ है, फिर भी उसके अधिकांश मंत्रो और तंत्रों में 'ओम् नमो, ओम् नम: ओम् ह्रीं ह्रीं नम:' आदि वेदमंत्रों के वाक्यों की भरमार है। इससे यह प्रमाणित होता है कि ब्राह्मणों के मूल पूर्वजों ने इस देश में आने के बाद बंगाल में सबसे पहले अपनी बस्ती बसाई होगी। उसके बाद उनकी जादू मंत्र-विद्या वहाँ से चारों ओर फैली होगी। इसलिए इस विद्या का नाम बंगाली विद्या पड़ा होगा। इतना ही नहीं, बल्कि आर्यों के पूर्वज आज के अनपढ़ लोगों की तरह अलौकिक (चमत्कार) शक्ति का (देव्हारा घुमविणारे) प्रदर्शन करनेवाले लोगों को ब्राह्मण कहा जाता था। ब्राह्मण-पुरोहित लोग सोमरस नाम की शराब पीते थे और उस शराब के नशे में बड़बड़ाते थे और कहते थे कि 'हम लोगों के साथ ईश्वर (परमात्मा, देव) बात करता है।' उनके इस तरह के कहने पर अनाड़ी लोगों का विश्वास जम जाता था, उनके प्रति श्रद्धा उत्पन्न होती थी, थोड़ा डर भी उत्पन्न होता था। इस तरह वे इन अनाड़ी लोगों को डरा-धमका कर उनको लूटते थे। इस तरह की बातें उनके ही वेद-शास्त्रों से सिद्ध होती है।[22] उसी अपराधी विद्या के आधार पर इस प्रगतिशील, आधुनिक युग में आज के ब्राह्मण पंडित पुरोहित अपना और अपने परिवार का पेट पालने कि लिए जप, अनुष्ठान, जादू−मंत्र विद्या के द्वारा अनाड़ी माली, कुनबियों को जादू का धागा बाँध कर उनको लूटते हैं, फिर भी उन अनाड़ी अभागे लोगों को उन पाखंडी, धूर्त मदारियों की (ब्राह्मण-पंडित-पुरोहितों की) जालसाजी पहचानने के लिए समय भी कहाँ मिल रहा है। क्योंकि ये अनाड़ी लोग दिन-भर अपने खेत में काम में जुते रहते हैं और अपने बाल-बच्चों का पेट पालते हुए सरकार को लगान देते-देते उनकी नाक में दम चढ़ जाता है।


धोंडीराव : मतलब, जो ब्राह्मण यह शेखी बघारते हैं कि मुँह से चार वेद निकले हैं, वेद स्वयंभू है, उनके कहने में और आपके कहने में कोई तालमेल नहीं है?


जोतीराव : तात, इन ब्राह्मणों का यह मत पूरी तरह से मिथ्या है; क्योंकि यदि उनका कहना सही मान लिया जाए, तब ब्रह्मा के मरने के बाद ब्राह्मणों के कई ब्रह्मार्षियों या देवार्षियों द्वारा रचे गए सूक्त ब्रह्मा के मुँह से स्वयंभू निकले हुए वेदों में क्यों मिलते हैं? उसी प्रकार चार वेदों की रचना एक ही कर्ता द्वारा एक ही समय में हुई है, यह बात भी सिद्ध नहीं होती। इस बात का मत कई यूरोपियन परोपकारी ग्रंथकारों ने सिद्ध करके दिखाया है।


धोंडीराव : तात, फिर ब्राह्मण पंडितों ने यह ब्रह्मघोटाला कब किया है?


जोतीराव : ब्रह्मा के मरने के बाद कई ब्रह्मर्षियों ने ब्रह्मा के लेख को तीन हिस्सों में विभाजित किया। मतलब, उन्होंने उसके तीन वेद बनाए। फिर उन्होंने उन तीन वेदों में भी कई प्रकार की हेराफेरी की। उनको पहले की जो कुछ गलग-सलत व्यर्थ की बातें  मालूम थीं, उन पर उन्होंने उसी रंग-ढंग की कविताएँ रच कर उनका एक नया चौथा वेद बनाया। इसी काल में परशुराम ने बाणासुर की प्रजा को बेरहमी से धूल खिलाई थी। इसीलिए स्वाभाविक रूप से ब्राह्मण-पुरोहितों के वेदमंत्रादि जादू का प्रभाव अन्य सभी क्षेत्रपतियों के दिलो-दिमाग पर पड़ा। यही मौका देख कर नारद जो हिजड़ों की तरह औरतों में ही अक्सर बैठता उठता था, उसने रामचंद्र और रावण, कृष्ण और कंस तथा कौरव और पांडव आदि सभी भोले-भाले क्षेत्रपतियों के घर-घर में रात और दिन चक्कर लगाना शुरू कर दिया था। उसने उनके बीवी बच्चों को कभी अपने इकतारे (वीणा) से आकर्षित किया तो सभी इकतारे के तार को तुनतुन बजा कर और उनके सामने थइ थइ नाचते हुए तालियाँ बजाई और उनको आकर्षित किया। इस तरह का स्वाँग रच कर और इन क्षेत्रपतियों को, उनके परिवारों को ज्ञान का उपदेश देने का दिखावा करके अंदर ही अंदर उनमें आपस में एक दूसरे की चुगलियाँ लगा कर झगड़े लगवा दिया और सभी ब्राह्मण पुरोहितों को उसने आबाद-आजाद करा दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि ब्राह्मण ग्रंथकारों ने उस काल में सभी लोगों की नजरों में धूल झोंक कर वेदमंत्रों के जादू और उससे संबंधित सारी व्यर्थ बातों का मिलाप करवा कर कई स्मृतियाँ, संहिताएँ, धर्मशास्त्र, पुराण आदि बड़े-बड़े ग्रंथों में उन्होंने अपने घरों की चारदीवारों के अंदर बैठ कर के ही लिख डाला और उन ग्रंथों में उन्होंने शूद्रों पर ब्राह्मण लोगों के स्वामित्व का समर्थन किया है। उन्होंने उन ग्रंथों में हमारे खानदानी सिपाहगरी के रास्ते में कटीला खंबा गाड़ दिया और अपनी नकली धार्मिकता का लेप लगा दिया। फिर उन्होंने यह सारा ब्रह्मच्छल बाद में फिर कभी शूद्रों के ध्यान में भी न आने पाए, इस डर से उन ग्रंथों में मनचाहे परिवर्तन करने की सुविधा हो, इसलिए शूद्रों को ज्ञान-ध्यान से पूरी तरह दूर रखा। पाताल में दफनाए गए शूद्रादि लोगों में से किसी को भी पढ़ना-लिखना नहीं सिखाना चाहिए, इस तरह का विधान मनुसंहिता जैसे ग्रंथों में बहुत ही सूझ-बूझ और प्रभावी ढंग से लिख कर रखा है।


धोंडीराव : तात, क्या भागवत भी उसी समय में लिखा गया होगा?


जोतीराव : यदि भागवत उसी समय लिखा गया होता तो सबके पीछे हुए अर्जुन के जन्मेजय नाम के पड़पोते की हकीकत उसमें कभी न आई होती।


धोंडीराव : तात, आपका कहना सही है। क्योंकि उसी भागवत में कई पुरातन कल्पित व्यर्थ की पुराणकथाएँ ऐसी मिलती हैं कि उससे इसप-नीति हजारों गुणा अच्छी है, यह मानना पड़ेगा। इसप नीति में बच्चों के दिलो-दिमाग को भ्रष्ट करनेवाली एक भी बात नहीं मिलेगी।


जोतीराव : उसी तरह मनुसंहिता भी भागवत के बाद लिखी गई होगी, यह सिद्ध किया जा सकता है।


धोंडीराव : तात, इसका मतलब यह कैसे होगा कि मनुसंहिता भागवत के बाद में लिखी गई होगी?


जोतीराव : क्योंकि भागवत के वशिष्ठ ने, इस तरह की शपथ ली कि मैंने हत्या नहीं की है। सुदामन राजा के सामने लेने की शपथ मनु ने अपने ग्रंथ के 8वें अध्याय के 110 वें श्लोक में कैसे ली है? उसी प्रकार विश्वमित्र ने आपातकाल में कुत्ते का मांस खाने के संबंध में जो कहा है, उसी ग्रंथ के 10वें अध्याय के 108वें श्लोक में क्यों लिखा है? इसके अलावा भी मनुसंहिता में कई असंगत बातें मिलती हैं।


[22]


कई यूरोपियन ग्रंथकारों की भी यहीं मान्यता  है।


परिच्छेद : दस


[दूसरा बलि राजा, ब्राह्मण धर्म की दुर्दशा, शंकराचार्य की बनावटी बातें, नास्तिक मान्यता, निर्दयता, प्राकृत ग्रंथकर्ता, कर्म और ज्ञानमार्ग, बाजीराव पेशवा, मुसलिमों से नफरत और अमेरिकी तथा स्कॉच उपदेशकों ने ब्राह्मणों के कृत्रिम किले की दीवारें तोड़ दीं, आदि के संबंध में।]


धोंडीराव : तात, अब तो चरम सीमा हो गई, क्योंकि आपने शिवाजी के पँवाड़े की प्रस्तावना में यह लिखा था और सिद्ध किया था कि चार घर की चार ग्रंथकर्ता ब्राह्मण लड़कियों ने मिल कर घर की कोठरी में झूठ-फरेबी का खेल खेला।


जोतीराव : किंतु आगे जब एक दिन (दलितों) का दाता; समर्थक, महापवित्र, सत्यज्ञानी, सत्यवक्ता बलि राजा इस दुनिया में पैदा हुआ, तब उसने हम सभी को पैदा करनेवाला, हम सबका निर्माणकर्ता महापिता जो है, उसका उद्देश्य जान लिया। निर्माणकर्ता द्वारा दिए गए सत्यमय पवित्र ज्ञान और अधिकार को उपभोग करने का समान अवसर सबको प्राप्त हो, इसलिए उस बलि राजा ने अपने दीन, दुर्बल और शोषित भाइयों को सभी ब्राह्मणों की अर्थात बनावटी, दुष्ट, धूर्त, मतलबी बहेलियों की गुलामी से मुक्त करके, न्याय पर आधारित राज्य की स्थापना करके अपनी जेष्ठ महिलाओं के भविष्य की आकांक्षाओं को कुछ हद तक पूरा किया, यह कहा जा सकता है। तात, जहाँ मिस्टर टॉम्स पेंस जैसे बड़े-बड़े विद्वानों के पूर्वजों ने इस बलि राजा के प्रभाव में आ कर अपने पीछे की सारी बलाएँ दूर करके सुखी हुए, अंत में जब उस बलि राजा को (ईसा मसीह) चार दुष्ट लोगों ने सूली पर चढ़ाया, उस समय सारे यूरोप में बड़ा तहलका मच गया था। करोड़ों लोग उसके अनुयायी हो गए और वे अपने निर्माणकर्ता के शासन के अनुसार इस दुनिया में केवल उन्हीं का सत्ता कायम हो, इस दिशा में रात और दिन प्रयत्नशील रहे। लेकिन इसी समय इस क्षेत्र में कुछ स्वस्थ वातावरण होने की वजह से यहाँ के कई बुद्धिमान खेतिहरों और किसानों ने उस घर की कोठरी के अंदर की नादान लड़कियों के झूठ-फरेबी खेल को ही तहस-नहस कर दिया। मतलब सांख्यमुनि जैसे बुद्धिमान सत्पुरुषों ने ब्राह्मणों के वेदमंत्र, जादूविधि के अनुसार चमत्कार का प्रदर्शन किया। उसने उन ब्राह्मणों को भी अपने धर्म का अनुयायी बनाया जो पशुओं की बलि चढ़ा करके उत्सव यात्रा के बहाने गोमांस-भक्षण करते थे। उसी प्रकार जो ब्राह्मण घमंडी, पाखंडी, स्वार्थी, दुराचारी आदि दुर्गुणों से युक्त थे और जिन ग्रंथों में जादूमंत्रों के अलावा और कुछ नहीं था, ऐसे ग्रंथों पर तेल काजल का लेप लगा कर अर्थात् उन ग्रंथों को नकारते हुए उसने अधिकांश ब्राह्मणों को होश में लाया। लेकिन उनमें से बचे-खुचे शेष कुतर्की ब्राह्मण कर्नाटक में भाग जाने के बाद उन लोगों में शंकराचार्य नाम अपना कर एक तरह से वितंडावादी विद्या जाननेवाला महापंडित पैदा हुआ। उस ब्राह्मणवादी पंडित ने जब यह देखा कि अपने ब्राह्मण जाति के दुष्ट कर्म की धूर्तता की सभी ओर निंदा हो रही है, थ-थू हो रही है और बुद्ध के धर्म का चारों ओर प्रचार हो रहा है, तो उसने यह भी देखा कि अपने लोगों का (ब्राह्मण-पंडित-पुरोहित) पेट पालने का धंधा ठीक से नहीं चला रहा है, इसलिए उसने नया ब्रह्मजाल खोज निकाला। जिन दुष्ट कर्मों की वजह से उनके वेदों सहित सभी ग्रंथों का बौद्ध जनता ने निषेध किया था, उसका उस शंकराचार्य ने बड़ी गहराई से अध्ययन किया और बौद्धों ने जिन बातों के लिए ब्राह्मणों की आलोचना की थी, उसने उनमें केवल गोमांस खाना और शराब पीना निषिद्ध मान लिया। लेकिन उसने बाद में अपने सभी ग्रंथों में थोड़ी बहुत हेराफेरी करके उन सभी में मजबूती लाने के लिए एक नए मत-वाद की स्थापना की। शंकाराचार्य की उस विचारधारा को वेदांत का ज्ञानमार्ग कहा जाता है।


बाद में उसने वहाँ शिवलिंग की स्थापना की। इस देश में जो तुर्क आए थे, उसने हिंदुओं के एक वर्ण क्षत्रियों में उन्हें शामिल कर लिया। फिर उसने उनकी मदद से मुसलिमों की तरह तलवार के बल पर बौद्धों को पराजित किया और फिर पुन: उसने अपनी उस शेष जादू-मंत्र विद्या और भागवत की व्यर्थ की पुराण कथाओं का प्रभाव अज्ञानी शूद्रों के दिलों-दिमाग पर थोप दिया। शंकराचार्य के इस हमले में उसके लोगों ने बौद्ध धर्म के कई लोगों को तेली के कोल्हू में ठूँस-ठूँस करके मौत के घाट उतार दिया। इतना ही नहीं, शंकराचार्य के लोगों ने बौद्धों के असंख्य मौलिक और अच्छे-अच्छे ग्रंथों को जला दिया। उसने उनमें से केवल अमरकोश जैसा ग्रंथ अपने उपयोग के लिए बचाया। बाद में जब उस शंकराचार्य के डरपोक चेले पंडित-पुरोहितों की तरह दिन में ही मशालों को जला कर, डोली में सवार हो कर, चारों ओर सधवा नारी की तरह नोक-झोंक करके नाचते हुए घूमने लगे तो ब्राह्मणों को नंगा नाच करने की पूरी स्वतंत्रता मिल गई। उसी समय मुकुंदराज, ज्ञानेश्वर, रामदास आदि जैसे पायली के पचास ग्रंथकार,  हुए और बेहिसाब, बेभाव बिक गए। लेकिन उन ब्राह्मण ग्रंथकारों में किसी एक ने भी शूद्रादि-अतिशूद्रों के गले की गुलामी की जंजीरे तोड़ने की हिम्मत नहीं दिखाई, क्योंकि उनमें उन सभी दुष्ट कर्मों का खुलेआम त्याग करने की हिम्मत नहीं थी। इसलिए उन्होंने उन सभी दुष्ट कर्मों को कर्म मार्ग और नास्तिक मतों का ज्ञानमार्ग - इस तरह के दो भेद करके उन पर कई पाखंडी, निरर्थक ग्रंथों की रचना की। इस तरह उन्होंने अपनी जाति के स्वार्थों का जी-जान से रक्षण किया और अज्ञानी शूद्रों से लूट-खसोट करके अपनी जाति को खूब खिलाया-पिलाया। लेकिन बाद में उन्होंने पूरी लज्जा-शर्म छोड़ दी और हर रात को जो कुकर्म नहीं करना चाहिए, उसको भी करने लगे। फिर ब्राह्मण लोगों को दिन के एक चौथाई समय गुजरने तक मुसलिमों का मुँह न देखना चाहिए, रजस्वला स्त्री की तरह घर में ही मांगलिक अवस्था में रहनेवाले ऐसे लोग बाजीराव के दरबार में इकठ्ठे होते थे। लेकिन अब समय ने करवट ले ली थी। पहले दिन के बीतने और दूसरे दिन के प्रारंभ में सभी मेहनतखोर ब्राह्मणों को ऐयाशी और गुलछर्रे उड़ाने के लिए जो सुख−सुविधाएँ मिलनेवाली थीं, उसके पहले ही अंग्रेज बहादुरों का झंडा चारों ओर लहराने लगा। उसी समय उस बलि राजा के अधिकांश अनुयायी अमेरिकी और स्कॉच उपदेश ने (मिशनरी) अपने-अपने देश की सरकारों की किसी भी प्रकार की परवाह न करते हुए इस देश में आए। बलि राजा ने जो सही उपदेश दिया था, उसे सभी नकली, दुष्ट, धूर्त ब्राह्मणों को प्रमाण द्वारा सिद्ध करके दिखाया और उन्होंने कई शूद्रों को ब्राह्मणों की इस अत्यंत अमानवीय गुलामी से मुक्त किया। उन्होंने शूद्रों के (शूद्रादि अतिशूद्र) गले में ब्राह्मणों द्वारा सदियों से टाँगी हुई गुलामी की बेड़ियों को तोड़ दिया और उन गुलामी की बेड़ियों को ब्राह्मणों के मुँह पर फेंक मारा। उस समय अधिकांश ब्राह्मण समझ गए कि, अब वे ख्रिस्ती उपदेशक (मिशनरी) उनका प्रभाव अन्य शूद्रों पर बिलकुल टिकने नहीं देंगे। वे उनके सारे ढोल के पोल खोल के रख देंगे, यह उनकी पक्की समझ हो गई थी। इसी डर की वजह से उन्होंने बलि राजा के अनुयायी उपदेशकों और अज्ञानी शूद्रों में साँठ-साँठ, मेल-मिलाप हो और उन दोनों में गहरी पहचान बने, इससे पहले ही बलि राजा के अनुयायी उपदेशकों और अंग्रेज सरकार को इस देश से ही भगा देने के इरादे से कई हथकंडे अपनाए। कई ब्राह्मणों ने अपनी खानदानी पाखंडी (वेद) विद्या कि मदद से अज्ञानी शूद्रों को उपदेश देना शुरू कर दिया, जिससे उनके मन में अंग्रेज सरकार के प्रति घृणा और नफरत की भावना जाग जाए। लेकिन दूसरी तरफ कुछ ब्राह्मणों ने विद्या प्राप्त की और उसके माध्यम से ब्राह्मणों के कुछ लोग बाबू, क्लर्क हुए और अन्य अन्य सरकारी सेवाओं में गए। इस तरह से ब्राह्मण लोग कई प्रकार का सरकारी काम अपना कर सभी प्रकार की सरकारी नौकरियों में पहुँचे। अंग्रेजों का सरकारी या घरेलू ऐसा एक भी काम नहीं है जहाँ ब्राह्मण न पहुँचे  हों।


परिच्छेद : ग्यारह


[पुराण सुनाना, झगड़ाखोरी का परिणाम, शूद्र, संस्थानिक, कुलकर्णी, सरस्वती की प्रार्थना, जप, अनुष्ठान, देवस्थान, दक्षिणा, बड़े कुलनामों की सभाएँ आदि के संबंध में]


धोंडीराव : तात, यह बात पूरी तरह सत्य है कि इन अधर्मी मदारियों के (ब्राह्मणों के) झगड़ालू पूर्वजों ने इस देश में आ कर हमारे आदि पूर्वजों को (मूल निवासियों को) पराजित किया। फिर उन्होंने उनको अपना गुलाम बनाया। फिर उन्होंने अपनी बाहुओं को प्रजापति बनाया और उनके माध्यम से उन्होंने जहाँ-तहाँ दहशत फैलाई। इसमें उन्होंने अपना कोई बहुत बड़ा पुरूषार्थ दिखाया है, इस बात को मैं कदापि स्वीकार नहीं कर सकता। यदि हमारे पूर्वजों ने ब्राह्मणों के पूर्वजों को पराजित किया होता, तब हमारे पूर्वज ब्राह्मणों के पूर्वजों को अपना गुलाम बनाने में क्या सचमुच में कुछ आनाकानी करते? तात, छोड़ दीजिए इस बात को। बाद में फिर जब ब्राह्मणों ने अपने उन पूर्वजों की धींगामस्ती को, मौका देख कर ईश्वरी धर्म का रूप दे दिया और उस नकली धर्म की छाया में कई ब्राह्मणों ने तमाम अज्ञानी शूद्रों के दिलो-दिमाग में हमारी दयालु, अंग्रेज सरकार के प्रति पूरी तरह से नफरत पैदा करने की कोशिश की, मतलब वे कौन सी बातें थीं?


जोतीराव : कई ब्राह्मणों ने सार्वजनिक स्थानों पर बनवाए गए हनुमान मंदिरों में रात-रात बैठ कर बड़ी धार्मिकता का प्रदर्शन किया। वहाँ उन्होंने दिखावे के लिए भागवत जैसे ग्रंथों की दकियानुसी बातें अनपढ़ शूद्रों को पढ़ाई और उनके दिलो-दिमाग में अंग्रेजों के प्रति नफरत की, घृणा की भावना पैदा की। इन ब्राह्मण पंडितों ने उन अनपढ़ शूद्रों को मंदिरों के माध्यम से यही पढ़ाया कि बलि के मतानुयायियों की छाया में भी खड़े नहीं रहना चाहिए। उनका इस तरह का नफरत भरा उपदेश क्या सचमुच में अकारण था? नहीं, बिलकुल अकारण नहीं था; बल्कि उन ब्राह्मणों ने समय का पूरा लाभ उठा कर उसी ग्रंथ की बेतुकी बातें पढ़ा कर सभी अनपढ़ शूद्रों के मन में अंग्रेजी राज के प्रति नफरत की भावना के बीज बो दिए। इस तरह उन्होंने इस देश में बड़ी-बड़ी धींगामस्ती को पैदा किया है या नहीं?


धोंडीराव : हाँ, तात, आपका कहना सही है। क्योंकि आज तक जितनी भी धींगामस्ती हुई है, उसमें भीतर से कहो या बाहर से, ब्राह्मण-पंडित-पुरोहित वर्ग के लोग अगुवाई नहीं कर रहे थे, ऐसा हो ही नहीं सकता। इस द्रोह का पूरा नेतृत्व वे ही लोग कर रहे थे। देखिए, उमा जी रामोशी[23] की धींगामस्ती में काले पानी की सजा भोगनेवाले धोंडोपंत नाम के एक (ब्राह्मण) व्यक्ति का नाम आता है। उसी प्रकार कल-परसों के चपाती संग्राम में परदेशी ब्राह्मण पांडे, कोंकण का नाना (पेशवे), तात्या टोपे आदि कई देशस्थ[24] ब्राह्मणों के ही नाम मिलते हैं।


जोतीराव : लेकिन उसी समय शूद्र संस्थानिक शिंदे, होलकर आदि लोग नाना फड़णीस से कुछ हद तक सेवक की हैसियत से संबंधित थे। उन्होंने उस धींगामस्ती करनेवालों की कुछ भी परवाह नहीं की और उस मुसीबत में हमारी अंग्रेज सरकार को कितनी सहायता की, इस बात को भी देखिए। लेकिन अब इसे छोड़ दीजिए। इन बातों से हमारी सरकार को ब्राह्मणों की उस धींगामस्ती को तहस-नहस करने की लिए बड़े भारी कर्ज का बोझ भी उठाना पड़ा होगा और उस कर्ज के बोझ को चुकाने के लिए पर्वती[25] जैसे फिजूल संस्थान की आय को हाथ लगाने की बजाय हमारी सरकार ने नए करों का बोझ किस पर डाल दिया? अपराधी कौन हैं और अपराध न करनेवाले लोग कौन हैं? इसकी पहचान किए बगैर ही सरकार ने सारी जनता पर कर (लगान) लगा दिया; किंतु यह इन बेचारे अनपढ़ शूद्रों से वसूल करने का काम हमारी इस मूर्ख सरकार ने किसके हाथों में सौंप दिया, इस बात पर भी हमको सोचना चाहिए। ब्राह्मण लोग अंदर ही अंदर शूद्र संस्थानिकों से जी-जान से इसलिए गाली-गलौज कर रहे थे क्योंकि उन्होंने इनकी जाति के नाना फड़णीस को उचित समय पर मदद नहीं की, जिसकी वजह से उसकी अंग्रेजों के साथ लड़ते हुए पराजय हुई। अंग्रेज सरकार ने उन लोगों के हाथ में कर-वसूली का काम सौंप दिया, जो शूद्र संस्थानिकों से जी भर कर गाली-गलौज करनेवाले थे, दिन में तीन बार स्नान करके मांगल्यता का ढिंढोंरा पिटनेवाले थे, धनलोलुप और ब्रह्मनिष्ठ ब्राह्मण कुलकर्णी थे। अरे, इन कामचोर ग्रामराक्षसों को (ब्राह्मण कर्मचारी), इन मूल ब्रह्मराक्षसों को जिस दिन से सरकारी काम की जिम्मेदारी दे दी गई, उस दिन से उन्होंने शूद्रों की कोई परवाह नहीं की। किसी समय मुसलिम राजाओं ने गाँव के सभी पशुओं पक्षियों की गरदनों को छुरी से काट कर उनको हलाल करने का हुक्म अपनी जाति के मौलानाओं को सौंप दिया था। लेकिन उनकी तुलना में देखा जाए तो स्पष्ट रूप से पता चल जाएगा कि ब्राह्मण-पंडितों ने अपने कलम की नोक पर शूद्रों की गरदनें छाँटने में उस मौलाना को भी काफी पीछे धकेल दिया है, इसमें कोई दो  राय नहीं है। इसीलिए तमाम लोगों ने सरकार की बिना परवाह किए इन ग्रामरक्षसों को (ब्राह्मणों) को 'कलम कसाई' की जो उपाधि दी है, वह आज भी प्रचलित है। और अपनी मूर्ख सरकार उनका अन्य सभी कामगारों की तरह तबादला करने की बजाय उनकी राय ले कर अज्ञानी लोगों पर लगान (कर) मुकर्रर करने की कारण नोटिस तैयार करती है। बाद में उसी कुलकर्णी को सभी शूद्र किसानों के घर-घर पहुँचाने के बाद उनसे मिलनेवाले कुलकणियों की सिर्फ स्वीकृति ले कर सरकार उनमें से कई नोटिसों को खारिज कर देती और अनपढ़ लोगों पर लगान बहाल कर देती है। अब इसको कहें भी क्या?


धोंडीराव : क्या, ऐसा करने से कुलकर्णियों को कुछ लाभ भी होता होगा?


जोतीराव : उससे उन कुलकर्णियों को कुछ फायदा होता होगा या नहीं, यह वे ही जानते हैं। लेकिन उनको यदि किसी वाहियात फतूरिया से कुछ लाभ न भी होता हो, फिर भी वे उन पर इस तरह की नोटिस भिजवा कर कम से कम चार आठ दिन की रूकावट निश्चित रूप से पैदा करते होंगे और आने जाने में सारी शक्ति खर्च करवाते होंगे, इसमें कोई संदेह नहीं। वे उन पर अपना रुतबा जमा करके कामों की उपेक्षा करते होंगे। बाद में उन्होंने शेष सभी काम बगुला भगत कि तरह पूरी आत्मीयता से किया होगा। इसलिए सभी अनपढ़ छोटे-बड़े लोगों और शंकराचार्य जैसे लोगों ने लक्ष्मी की स्तुति की कि 'हे हमारी सरकारी सरस्वती मैया, तू अपने कानून से रोकती है और लाच खानेवालों को और उसी तरह लाचार हो कर लाच देनेवाले को दंड देती है, इसलिए तू धन्य है।' इसलिए कई लोग प्रसन्न हुए और उन्होंने कुछ कुलकर्णियों के घरों पर कई दिनों तक लगातार पैसों की बारिश बरसाई। कुछ लोगों ने इसके खिलाफ शोर मचाया। यदि यह बात सच है तब उसकी पूरी जाँच-पड़ताल करनी चाहिए और ऐसे हरामखोर कुलकर्णियों को किसी गधे पर बैठा कर उनको गाँवों के तमाम रास्तों से घुमाने का काम अपनी सरकार का है।


धोंडीराव : तात, सुनिए। ब्राह्मणों ने जो टेढ़ी-मेढ़ी हलचल शुरू की थी, उसको कुछ बुद्धिमान गृहस्थों ने अब अच्छी तरह पहचान लिया है, और उस बलि राजा (अंग्रेज सरकार) को अधिकारियों को, मुखिया को इस चालबाजी से अवगत कराया गया। फिर भी सरकार उन पहरेदारों की आँखों में धूल झोंक कर ऐसे कलम-कसाइयों को प्रसन्न करने में लगी हुई है। आज के ब्राह्मणों में कई लोग ऐसे हैं जो शूद्रों के श्रमरुप लगान की वजह से बड़े-बड़े विद्वान हुए हैं। लेकिन वे इस उपकार के लिए शूद्रों के प्रति किसी भी प्रकार की कृतज्ञता प्रदर्शित नहीं करते; बल्कि उन्होंने कुछ दिनों तक मनचाहे मौजमस्ती की है और अंत में अपनी मांगल्यता का दिखावा करके यह भी सिद्ध करने की कोशिश की है कि उनकी वेदमंत्रादि जादूविद्या सही है। इस तरह कि झूठी बातों से उन्होंने शूद्रों के दिलो दिमाग पर प्रभाव कायम किया। शूद्रों को उनका पिछलग्गू बनना चाहिए, इसके लिए न जाने किस-किस तरह के पाँसे फेंके होंगे। उन्होंने शूद्रों को अपने पिछलग्गू बनाने की इच्छा से उन्हीं के मुँह से यह कहलवाया कि शादावल के लिंगपिंड के आगे या पीछे बैठ कर किराए पर बुलाए गए ब्राह्मण पुरोहितों के द्वारा जप, अनुष्ठान करवाने की वजह से इस साल बहुत बारिश हुई, और महमारी का उपद्रव भी बहुत कम हुआ। इस जप, अनुष्ठान के लिए आपस में रूपया पैसा भी इकट्ठा किया था। इस तरह उन्होंने जप, अनुष्ठान के आखिरी दिन बैलबंडी पर भात का बली राजा बनवा कर सभी प्रकार के अज्ञानी लोगों को बड़ी-बड़ी, लंबी चौड़ी झूठी खबरें दिलवा कर, बड़ी यात्राओं का आयोजन करवाया। फिर उन्होंने सबसे पहले अपनी जाति के इल्लतखोर ब्राह्मण पुरोहितों को बेहिसाब भोजन खिलाया और बाद में जो भोजन शेष बचा उसको सभी प्रकार के अज्ञानी शूद्रों की पंक्तियाँ बिठा कर किसी को केवल मुट्ठी भर भात, किसी को केवल दाल का पानी, और कइयों को केवल फाल्गुन की रोटियाँ ही परोसी गईं। ब्राह्मणों को भोजन से तृप्त कराने के बाद उनमें से कई ब्राह्मण पुरोहितों ने उन अज्ञानी शूद्रों के दिलो दिमाग पर अपने वेदमंत्र जादू का प्रभाव कायम रखने के लिए उपदेश देना शुरू किया हो, तो इसमें कोई संदेह नहीं। लेकिन वे लोग ऐसे मौके पर अंग्रेज लोगों को प्रसाद लेने के लिए आमंत्रित क्यों नहीं करते?


जोतीराव : अरे, ऐसे पाखंडी लोगों ने इस तरह चावल के चार दाने फेंक दिए और थू-थू करके इकठ्ठे किए हुए ब्राह्मण-पुरोहितों ने यदि हर तरह का रूद्र नृत्य करके भों भों किया, तब उन्हें अपने अंग्रेज बहादुरों को प्रसाद देने की हिम्मत होगी?


धोंडीराव : तात, बस रहने दीजिए। इससे ज्यादा और कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है। एक कहावत है कि 'दूध का जला छाँछ भी फूँक-फूँक कर पीता है।' उसी तरह इस बात को भी समझ लीजिए।


जोतीराव : ठीक है। समझ अपनी-अपनी, खयाल अपना-अपना। लेकिन आजकल के पढ़े लिखे ब्राह्मण अपनी जादूमंत्र विद्या और उससे संबधित जप अनुष्ठान का कितना  भी प्रचार क्यों न करें, उस मटमैले को कलई चढ़ाने का कितना भी प्रयास क्यों न करें और तमाम गली कूचों में से भोंकते हुए क्यों न फिरते रहें. लेकिन अब उनसे किसी का कुछ भी कम ज्यादा होनेवाला नहीं है। लेकिन अपने मालिक के खानदान को सातारा के किले में कैद करके रखनेवाले नमकहराम बाजीराव(पेशवे) जैसे हिजड़े ब्राह्मणों ने रात और दिन खेती में काम करनेवाले शूद्रों की मेहनत का पैसा ले कर मुँहदेखी पहले दर्जें के जवांमर्द ब्राह्मण सरदारों को सरंजाम बनाया। उन जैसे लोगों को दिए हुए अधिकारपत्र (सनद) के कारणों को देख कर फर्स्ट सॉर्ट टरक्कांड साहब जैसे पवित्र नेक कमिशनर को भी खुशी होगी, फिर वहाँ दूसरे लोगों के बारे में कहना ही क्या? उन्होंने पार्वती जैसे कई संस्थानों का निर्माण करके, उन संस्थानों में अन्य सभी जातियों के अंधे, दुर्बल लोगों तथा उनके बाल-बच्चों की बिना परवाह किए, उन्होंने (ब्राह्मणों) अपनी जाति के मोटे-ताजे आलसी ब्राह्मणों को हर दिन का मीठा अच्छा भोजन खिलाने की पंरपरा शुरू की। उसी प्रकार ब्राह्मणों के स्वार्थी नकली ग्रंथों का अध्ययन करनेवाले ब्राह्मणों को हर साल यथायोग्य दक्षिणा देने की भी पंरपरा शुरू कर दी। लेकिन खेद इस बात का है कि ब्राह्मणों ने जो पंरपराएँ शुरू की हैं, केवल अपनी जाति के स्वार्थ के लिए। उन सभी पंरपराओं को अपनी (अंग्रेज) सरकार ने जस के तस अभी तक कायम रखा है। इसमें हमको यह कहने में क्या कोई आपत्ति हो सकती है कि उसने अपनी प्रौढ़ता और राजनीति को बड़ा धब्बा लगा लिया है? उक्त प्रकार के फिजूल खर्च से ब्राह्मणों के अलावा अन्य किसी भी जाति को कुछ भी फायदा नहीं हैं; बल्कि उनके बारे में यह कहा जा सकता है कि वे हराम का खा कर मस्ताए हुए कृतघ्न साँड़ हैं। और ये लोग हमारे अनपढ़ शूद्र दाताओं को अपने चुड़ैल धर्म के गंदे पानी से अपने पाँव धो कर वही पानी पिलाते हैं। अरे, कर्मनिष्ठ ब्राह्मणों के पूर्वजों ने अपने ही धर्मशास्त्रों और मनुस्मृति के कई वाक्यों को काजल पोत कर ऐसे बुरे कर्म कर्म कैसे किए? लेकिन अब तो उन्हें होश में आना चाहिए और इस काम के लिए अपनी भोली-भाली सरकार कुछ न सुनते हुए पार्वती जैसे संस्थानों में इन स्वार्थी ब्राह्मणों में से किसी को भी शूद्रों के पसीने से पकनेवाली रोटियाँ नहीं खानी चाहिए। इसके लिए एक जबर्दस्त सार्वजनिक ब्राह्मण सभा की स्थापना करके उनकी सहायता से इस पर नियंत्रण रखना चाहिए; जिससे उनके ग्रंथों का कुछ न कुछ दबाव पुनर्विवाह उत्तेजक मंडली पर पड़ेगा, यही हमारी भावना थी। किंतु उन्होंने इस तरह की बड़े-बड़े उपनामों की सभाएँ स्थापित करके उनके माध्यम से अपनी आँखों का मोतियाबिंद ठीक करना तो छोड़ दिया और अज्ञानी लोगों को सरकार की आँखों के दोष दिखाने की कोशिश में लगे रहे। यह हुई न बात कि 'उलटा चोर कोतवाल को डाँटे' इसको अब क्या कह सकते हैं! अब हमारे अज्ञानी सभी शूद्रों की उस बली राजा के साथ गहरी दोस्ती होनी चाहिए, इसका प्रयास करना चाहिए और उस बली राजा के सहारे से ही इनकी गुलामी की जंजीरें टूटनी चाहिए। ब्राह्मणों की गुलामी से शूद्रों को मुक्ति करने के लिए अमेरिकी स्कॉच और अंग्रेज भाइयों के साथ जो दोस्ती होने जा रही है, उसमें उन्हें कुछ दखलंदाजी करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। अब उनकी दौड़धूप बहुत हो गई है। अब हम उनकी गुलामी का निषेध करते हैं।


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उमा जी रामोशी - महाराष्ट्र नाईक नाम का एक आदमी था। वह बड़ा लड़वैया था। उसने अंग्रेजों से भी मुकाबला किया था। लेकिन उमा जी नाईक रामोशी शूद्र जाति में पैदा हुआ था, इसलिए उसको कोई शहीद नहीं मानता। लेकिन जो ब्राह्मण सही में डाकू थे और अँग्रेजों से लड़े, उन्हें शहीद माना गया।


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देशस्थ - महाराष्ट्र के ब्राह्मणों में देशस्थ ब्राह्मण नाम की एक उपजाति है।


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पार्वती - पूना का पार्वती देवस्थान, एक संस्थान। इसकी पूजा द्वारा प्राप्त आय केवल ब्राह्मणों पर खर्च होती थी। यहाँ हमेशा ब्राह्मणों को दान दिया जाता था। यहाँ हमेशा ब्राह्मण भोज-चलता  था।


परिच्


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